टैक्स का पैसा: एक राष्ट्रीय मुद्दा

News Publish Date: April 1, 2025

 

                                                                                                           लेखक- डॉ.  हरीश कुमार  

                                                                                                    समाजसेवी और राजनितिक विश्लेषक 

                                                                                                  चर्चा का विषय:- टैक्स का पैसा: एक राष्ट्रीय मुद्दा

 मेरे प्यारे भारत देश को आज़ाद हुए 78 साल पुरे होने को है इस आज़ादी को दिलाने में हर भारतीय की महत्वपूर्ण भूमिका है| हर इंसान जाति, धर्म, सम्प्रदाय, भाषा, बोली और क्षेत्र से उपर उठ, अपनी जान दाव पर लगा कर अंग्रेजो को मार मार कर इस देश से बहार भगाया| तब से अब तक कई सरकार बदली और हर सरकार में नेताओ और सरकारी अधिकारियो ने देश मे शहरी मास्टर प्लान बनाये और उन पर काम किया | अब कैसे काम किया? क्या क्या काम हुआ ? इनके द्वारा हर 20 साल में बनाई हुई मास्टर प्लानिंग का क्या हाल होता है चलो देखते है? देश का सरकारी और राजनितिक तंत्र सिटी प्लानिंग के विकास में कैसे काम करता है इसे समझने के लिए दिल्ली विकाश प्राधिकरण (डीडीए) के उदाहरण से समझते है । दिल्ली में डीडीए की स्थापना सन 1957 में हुई, दिल्ली की जमीन और उस पर विकाश पर पूर्ण अधिकार डीडीए का था । डीडीए के पास अपना सरकारी सिस्टम था जिसमे बहुत सारे सरकारी कर्मचारी उसके लिए काम करते है। मास्टर प्लानिंग के तहत कहाँ ओर किस कीमत पर जमीन खरीद कर उसका डेवलपमेंट किया जाये ये कुछ ऊँचे ओहदेदार कर्मचारियों के कंधों पर ज़िम्मा था। ये अलग बात है की देश के जरुरतमंदो के लिए खरीदी गई जमीनों के विकास से पहले इन नेताओ और अधिकारों का डबल विकास हो गया जिसकी किसी ने जांच नही की| अगर सही मायने में जांच की होती तो मालूम होता की कितने जरुरतमंदो का हिस्सा ये नेता और अधिकारी खा गए |

              डीडीए की स्थापना होते ही जमीन की खरीद शुरू हुई और उस पर मकान बनाने का काम भी शुरू हुआ, अब मसला आया जनता को वो मकान कैसे बेचे तो उसके लिए बड़े बड़े अखबारों में महंगे महंगे विज्ञापन दिए गए मज़े की बात तो ये है की वो अखबार गरीब जनता पढ़ती ही नही थी। उस समय जनता को जानकारी के साधन उपलब्ध नही थे और उन्हें लगा कि सरकारी सिस्टम है तो अच्छी जगह कम कीमत पर मिलेगी इसलिए सरकार में बैठे नेतागणों ओर सरकारी तंत्र में बैठे आला अधिकारियों के घर उनके सगे सम्बन्धी चक्कर लगाते ओर कुछ भी जुगाड़ करके वो मकान लेने की कोशिश करते लेकिन धीरे धीरे जनता को समझ आने लगा कि सरकारी तंत्र के तहत बने मकानो के इन्फ्रास्ट्रक्चर में भ्रष्टाचार की मिलावट से उनका हाल दर से बदतर होता है। जमीन खरीद में बड़े दलालो के साथ मिलकर अनचाही जमीन महंगे दामो में खरीदी ओर निर्माण कार्यो में बिल्डर्स से मिलीभगत के कारण सरकार को लाखो-करोडो को चूना लगाया। शुरू में जनता ने जानकारी के अभाव में दिलचस्पी दिखाई लेकिन समय के साथ साथ जनता इस मामले में जागरूक हो गई और आज हाल ये है कि शहरी मामलो के राज्य मंत्री कौशल किशोर ने राज्यसभा में कहा कि डीडीए के पास बेचने के लिए 40,000 से ज्यादा मकान पड़े है जो बिक ही नही रहे है ओर उन अनबिके मकानों की अनुमानित कीमत 18000 करोड़ रुपये है। खैर आज कोई इन मकानों को देखना पसंद नही करता है जबकि एक वक्त वो भी था जब लॉटरी के लिए लंबी कतार लगती थी, बड़े अफसर से लेकर चपरासी तक कि चाय पानी होती थी फिर भी सालो के इंतेजार के बाद मकान की सूची बाहर आती थी। कई बार ये चाय पानी काम आती थी और कई बार फोकट में खर्चा हो जाता था खैर ये सब सिस्टम का हिस्सा हो गया है और जनता को इसकी आदत हो गई है अब जनता आराम से अपने काम निकालने के लिये भ्रष्टाचार को खुद बढ़ावा देती है रिश्वत देना अब उनके लिए आम बात है |

           रिश्वत के लिए अलग से कोई बजट नही बनता वो अलग बात है इस रिश्वत देने के चक्कर मे खुद का बजट बिगड़ जाता है| रिश्वत से अधिकारियों और नेताओं द्वारा चंद सालो में बड़े घर , फ्लैट्स,  जमीन , सोना और पता नही कितनी चल अचल सम्पति बना ली जाती है जिसका हिसाब लेने के लिए कोई जांच नही होती है| ये रिश्वत हर उस आफिस में ली जाती है जहाँ रिश्वत लेना-देना दोनों जुर्म होने के बैनर लगे है। खैर दोनों तरफ आदत हो गई ऑफिस में महापुरुषों के फोटो के नीचे बैठ कर चाय पर चर्चा करते हुए रिश्वत की रकम तय हो जाती है और हमारे महापुरुष उन्हें देख कर सोचते होंगे हमने किन लोगों के लिए लड़ाई लड़ी ओर क्यों इनके लिये हमने अपनी जान दी? क्या हमने इस दिन के लिए देश को आज़ादी दिलाई ?

 सरकारी और राजनितिक तंत्र का आलम ये है की अगर वो किसी मुद्दे पर फसते नजर आते है तो उसके जैसा या उस से बड़ा कोई अन्य मुद्दा जनता के सामने खड़ा करते है जिसके कारण उस पुराने मुद्दे से जनता का ध्यान हट जाए| | अगर फिर भी जनता के कुछ शुभचिंतक उस मुद्दे पर बात करना चाहे तो राजनितिक पार्टियों के अंधभक्त और नेताओ के चमचे बचाव में लग जाते हैं | इतिहास गवाह है की ऐसे शुभचिंतको पर झूठे मुकदमे लगा कर या उन्हें जेल में डाल कर दबाने और बदनाम करने का प्रयास करते है और फिर एक दिन वो शुभचिंतक झुक ही जाता है क्योकि आम आदमी है साहेब, उसे अपना परिवार भी चलाना है , कब तक सरकार और सिस्टम से अकेला लडे क्योकि जिस जनता जनार्दन के लिए वो लड़ रहा है वही उसके सपोर्ट में नही आती क्योकि वो सो रही है और सरकार से सभी को डर लगता है क्योकि हमारे गाँवों में एक कहावत चलती है जिसकी लाठी उसकी भैंस | अब हर इंसान भगतसिंह नही होता |

  दिल्ली की बात करे तो नरेला में अधिकांश फकेट्स अनबिके पड़े है कारण बहुत सारे हो सकते है जैसे वो रिहायसी इलाका नही बना , मुख्य रिहायसी इलाको से उसकी दूरी,  फ्लैटों का आकर बहुत छोटा होना,  मेट्रो की पहुच नही होना,  सबसे बड़ी बात इलाके के हिसाब से बहुत अधिक कीमत। सरकारी तंत्र में जब तक लोग सिर्फ सेलेरी ओर आराम की नॉकरी समझ कर काम करेंगे और बेहतर मैनेजमेंट नही होगा तब तक सरकारी तंत्र से जनता को उम्मीद लगाना बेमानी होगा। आपने कभी सोचा कि वहाँ जमीन किसने चुनी ? इतनी महंगी क्यो खरीदी ? कोई जांच क्यो नही हुई ? मकान बनकर तैयार होने के बाद उनकी कीमते आसमान क्यो छू रही है? खैर किसी को कहा पड़ी इन सब की क्योकि जनता के टैक्स का पैसा है कितना भी खराब हो क्या फर्क पड़ता है ? बेचारी आम जनता के पास फुरसत ही नही है कि वो इन सब में पड़े ,आखिर अपना घर भी देखना है। सच में जनता को तो मालूम ही नही की उसके 50 पैसे की माचिस से लेकर खाने के नमक तक, सुबह के पेस्ट से लेकर शाम की चाय तक, सायकिल से लेकर कोई वाहन खरीदने तक, गरीब आदमी के पेट भरने के लिए खाने के एक निवाले से लेकर स्वादिष्ट पिज़्ज़ा बर्गर तक हर चीज़ पर टेक्स भरना पड़ता है जिसके पैसे से इन नेताओ और सरकारी कर्मचारियों को सेलेरी और पेंशन दी जाती है जिसके बाद भी ये लोग जनता का खून चूसने में कोई कसर नही छोड्ते है | लेकिन जब तक हमारी जनता उदासीन रहेगी तब तक सरकारी और राजनीति तंत्र का यही हाल रहेगा, वो इसी तरह जोक की तरह आम जनता का खून चूसते रहंगे और देश के असली मालिको को चुना लगाते रहेंगे  |

        प्रायवेट सेक्टर में इतनी बडी हानि होने के बाद सोच समझ कर कदम उठाया जाता है, रिसर्च की जाती है, अच्छी टेक्नोलोजी का इस्तेमाल किया जाता है, अच्छे वर्कर लगाए जाते है, ताकि फिर से ऐसा कोई नुकसान न हो | अगर किसी प्रोजक्ट में दिक्कत आ भी जाये तो  अपनी मूल रकम की भरपाई के लिए लाभ प्रॉफिट कम कर बेचान करके अन्य प्रोजेक्ट में पैसे कमा लेते हैं। लेकिन सरकारी तंत्र में भूल जाते हैं की 18000 करोड़ का ब्याज कितना होता है? उसकी भरपाई कैसे होगी ? आखिर उस हानि का जिम्मेदार कौन है ? आखिर ये पैसा जेब से तो लगा नही है और जिस जनता जनार्दन का पैसा लगा है उसे कुछ पड़ी ही नही है। ये कुछ ऐसा है जेसा विंस्टन चर्चिल ने कैथोलिक सम्राटो द्वारा प्रायोजित कोलम्बस नाविक के लिए लिखा कि उन्हें पता ही नही था कि वो कहाँ जा रहे थे, दुनिया के किस हिस्से में थे, कब लक्ष्य की प्राप्ति होगी लेकिन उसने अपनी यात्रा करदाताओ के पैसे से जारी रखी।

     जनता के पैसे की इतनी बर्बादी होने के बाद भी 2022-23  में डीडीए ने 23955  नए फ्लैट्स बना दिये जबकि पहले से बने हुए फ्लैट्स ही नही बिके जिनकी हालात खराब होती जा रही है। साथ ही द्वारका में 14  पेंट हाउस बनाये गए जिनमे प्रत्येक कि कीमत पाँच करोड़ रुपये है। खैर इसके पीछे डीडीए की मंशा ओर अधिके ग्राहकों को लुभाने की हो सकती है लेकिन आम जनताक के समझ से परे है|  ऐसा नही है की सरकार पहली बार जनता को सरकारी प्रोडक्ट बेच रही है इससे पहले सरकार विजय स्कूटर बनाती थी जिस पर लंबी प्रतीक्षा सूची बनती थी उत्तर भारत में विजय स्कूटर जाना माना ब्रांड बन गया था जबकि उस समय मे बजाज स्कूटर का क्रेज भी कम नही था उसे खरीदना शान समझा जाता था। सरकारी स्कूटर लेने के लिए नेताओ ओर आला अधिकारियों के चक्कर लगते थे तब वो जनता को जुगाड़ करके दिला देते थे उसके बाद नेताजी को उसकी सवारी करवाना अनिवार्य था| आज भी कुछ बदला नही है गाड़ियों की वेटिंग में नेताओ के फोन से गाडी जल्दी मिलने या उन पर डिस्काउंट दिलाने पर उनके चुनाव में या उसके घूमने जाने पर उसी गाड़ी की व्यस्था करनी पड़ती है।

                 सन 1965 से मिनिस्ट्री ऑफ़ फ़ूड प्रोसेसिंग इंडस्ट्रीज गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया मोर्डन ब्रेड बनाती थी जिसे आज हम रोज सुबह चाय के साथ खाते है | बाद में उसे हिंदुस्तान यूनिलीवर को बेच दिया। इसके अलावा सॉफ्ट ड्रिंक, प्रोसेस्ड फ़ूड , तेल और कई प्रोडक्ट बनाती थी | मार्किट में बहुत अच्छा परफोर्म करने के बाद भी सरकार ने इसे बेचने का ऐलान कर दिया | अब बेचान क्यों किया ? प्रॉफिट वाली कंपनी को बेचने में किसका फायदा हुआ ? किसके दबाव में ये बेचीं गई ? सबकी जांच होनी चाहिए थी जो आज तक नही हुई | खैर मज़े की बात ये है की इसको खरीदने में सिर्फ और सिर्फ एक ही कंपनी ने बिड लगाईं | अगर आज इस ब्रेड कंपनी की बात करे तो पुरे भारत में लगभग 35% ग्राहकों की हिस्सेदारी है |

              अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में जार्ज फर्नांडिस रक्षा मंत्री थे विनिवेश के बारे में वो लिखते थे कि बेचने की नीति "अमीरो को और अमीर बना रही है और निजी एकाधिकार बना रही है"। 1977 में जब मोरारजी देसाई की सरकार में जॉर्ज उधोग मंत्री थे तब इन्होंने आईबीएम ओर कोका कोला को भारत के बाहर का रास्ता दिखा दिया था तब इन्होंने '77 (डबल सेवन) ' नाम का स्वदेशी पेय मोर्डेन फूड्स के साथ मिलकर शुरू किया लेकिन ये खास कमाल नही दिखा पाई क्योकि आपको मालूम है सरकार में बेठे नेता सिर्फ स्वार्थ के लिए काम करते है और सरकारी अधिकारी सिर्फ और सेलेरी के लिए काम करते है वो ना तो बेहतर मार्केटिंग कर पाए और नही वो टेस्ट दे पाए | इसके बाद जब जनता पार्टी की सरकार गई और इंदिरा गांधी की फिर से पूर्ण बहुमत की सरकार आई और इंदिरा नही चाहती थी की इमरजेंसी के दोरान की कोई भी निशानी बच पाए इसलिए 77 स्वदेशी पेय खत्म होना तय था| हालांकि बाद में 1993 में नरसिम्हा रॉव की सरकार में कोक ने भारतीय बाजार में वापसी की।

       अब सरकार निजी क्षेत्र के किसी प्रोडक्ट को नही बनाती वो अब बाजार से हट गई और निजीकरण की तरफ बढ़ती जा रही है। अभी हाल ही में देश के ग्रहमंत्री ने कहा की ओला और उबर की तरह सरकारी टेक्सी ले कर आ रहे है देखना ये है की ये कब तक शुरू होती है और उन पर कितना काम होता है | दिल्ली में सरकार अभी भी आवास निर्माण में लगी है तो इसका बड़ा कारण है जमीन पर एकाधिकार ओर पूर्णतया नियत्रंण। देश की राजधानी दिल्ली में विकाश भरपूर हुआ है और लगातार सभी सरकार कर रही है। बात सिर्फ राजधानी में डीडीए की नही है, हर राज्य में बनने वाले सरकारी आवासो का ये हाल है जिनकी दीवारों पर भी दीमक चढ़ गई है उनके खिड़की ओर दरवाजे तक गल-सड गए और अब जनता की खून पसीने की कमाई के टैक्स से बने वो अनबिके आवास असामाजिक तत्व के असामाजिक कार्यो के काम आ रहे है। खैर किसी का क्या पड़ी है सरकारी अधिकारियो को उनकी सलेरी टाइम से मिल रही है और नेताओ को सलेरी के साथ बिना मतलब की पेंशन| यहाँ गरीब ओर गरीब हो रहा है और अमीर ज्यादा अमीर, क्योकि सरकारी पालिसी नाम के लिए गरीबो के लिए बनती है जबकि उनके पीछे असली मकसद अमीरों की सहायता होती है| आज तक जितनी भी गरीबो के लिए पालिसी बनती है उनको बनाने वाले कौन है ? क्या उनका गरीबो और गरीबी से कोई लेना देना है ? एयर कंडीसनर रूम में बेठ कर गरीबो के लिए पालिसी बनाने वाले क्या जाने गरीबी क्या होती है ? क्या आज तक किसी भी पालिसी की जांच हुई ? क्या गरीबो का हक उनको सही मायने में मिलता है ? क्या जनता के टेक्स के पैसे का सही सदुपयोग होता है ? खैर एक दिन लोकतंत्र के असली मालिक जागेंगे और अपना हिसाब खुद लेंगे और जिस दिन ऐसा होगा तब इन भ्रष्टाचारी नेताओ को भागने के लिए उनके पेरो के नीचे जमीं नही होगी| मेरी तो पुरजोर कोशिश है की हे! भारत देश की जनता जनार्दन, लोकतंत्र के असली मालिको जागो और जब तक ये नही जागते तब तक उनको जगाने के लिए मेरी कलम लगातार काम करती रहेगी| ..........जय हिन्द, जय जवान, जय किसान, जय मातृशक्ति   

 

            

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